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२२० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी दशम अध्याय पूजन यह एकान्त विनय संशय विपरीत मान्यता जीत चुका । यह अज्ञान भाव से भी अब पूरा पूरा रीत चुका || अहंकार ममकार शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति में है बाधक | " इस प्रकार मुनि अहंकार ममकार नाश बनते साधक || मन को रंच मात्र भी इत उत कभी न जो जाने देता । उसे शीघ्र चिद्रूप शुद्ध की होती प्राप्ति सौख्य लेता || जो चिद्रूप शुद्ध की महिमा जान उसे ही ध्याता है |
पर ममत्व को क्षय करता है महा मोक्ष पद पाता है ॥२१॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचित तत्त्वज्ञानं तरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपध्याना अहंकारममकार त्यागप्रतिपादकदशमाध्याये निरभिलाषचैतन्यस्वरूपाय पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्घ्य
छंद सरसी हे अरहंत जिनेश्वर तुमको जो भी ध्याता है । स्वपर भेद विज्ञान प्राप्त कर शिव पथ पाता है | रत्नत्रय को धारण कर जो निज को ध्याता है । केवलज्ञान प्रगट करता तुम सम बन जाता है | अरहंतों की महिमा को जो उर में लाता है । सकल द्रव्य गुण पर्यायों को हृदय सजाता है | हो अयोग केवली सिद्ध पद को प्रगटाता है । भव सागर से पार उतरता शिव सुख पाता है | परम शुद्ध चिद्रूप गीत जो मन. से गाता है । सादि अनंतानंत काल तक निज सुख पाता है |
दोहा महाअर्घ्य अर्पित करूं पाऊं दर्शन ज्ञान ।
परम शुद्ध चिद्रूप की महिमा महा महान ॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
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