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२२८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन
मुक्ति लक्ष्मी के निवास को पाने का ही यत्न करो । सर्व पाप भावों को क्षय करने का पूर्ण प्रयत्न करो ||
गीतिका
निर्माण जिनमंदिर कराते बहु मनुज संसार में । प्रतिष्ठा उत्सव मनाते बहु मनुज संसार में ॥ तीर्थ यात्रा सुरुचि उर में हैं परिग्रह से रहित । उपसर्ग परिषह सहन करते परोपकार महान रत ॥ तपस्वी हैं शास्त्र के जानकार विज्ञ विचार वान । वे मनुज भी हैं अनेकों स्वयं बनते ज्ञानवान ॥ किन्तु राग अरु द्वेष मोह अभाव कर्त्ता बहुत कम । शुद्ध निज चिद्रूप ध्याता बहुत थोड़े अल्पतम ॥ अतः निज चिद्रूप ध्याता एक विरला जानिये ।
वही सर्वोत्तम सुखों का हितेच्छुक है मानिये ॥२॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(३) गणकचिकित्सकतार्किकपौराणिकवास्तुशब्दशास्त्रज्ञाः ।
संगीतादिषु निपुणाः सुलभा नहि तत्त्ववेत्तारः ॥३॥
अर्थ- ज्योतिषी वैद्य नौयायिक पुराण के वेत्ता, गृहनिर्माण विद्यापारगामी, व्याकरण शास्त्र के जानकार और संगीत आदि कलाओं में भी प्रवीण बहुत से मनुष्य हैं। परन्तु तत्त्वों के जानकार नहीं है ।
३. ॐ ह्रीं गणकचिकित्सकतार्किकादिपदरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निरुपाधिस्वरूपोऽहं |
ज्योतिषी जन वैद्य तार्किक पुराणों के जानकार । व्याकरण अरु शास्त्र ज्ञानी बहुत हैं संगीतकार || किन्तु ज्ञानी तत्त्व के मिलते नहीं है अगर हों दो चार तो वे दृष्ट होते
कभी भीं । नहीं भी ॥