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१८३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान तन रूपी घर बंदी गृह सम रचता बैरी कर्म अधीर । आयु कर्म बेड़ी से बंधित है निजात्मा तो अशरीर ॥
जपा
दोहा गुण ग्राहकता श्रेष्ठ है नेष्ठ ग्रहण विद्रूप ।
महाअयं अर्पित करूं निरख निरख चिद्रूप ॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
वीरछंद स्वतः सिद्ध परिणामी गुण है व्यय उत्पाद ध्रौव्य संयुक्त। साधारण असाधारण गुण समान विशेष सुगुण से युक्त ॥ द्रव्यों में नूतन पर्यायों की उत्पत्ति यही उत्पाद । तथा पूर्व पर्याय नाश को व्यय कहते हैं सब अविवाद ॥ द्रव्य सदृशतारूप स्थायी रहता वही ध्रौव्य होता । ज्यों पर्याय देव नर पशु में जीव जुस्थायी रहता ॥ एक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है वही शुद्ध निश्चयनय है । इक अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है वह अशुद्ध निश्चयनय है ॥ जो अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है वह पर्यायार्थिक नय है । नय व्यवहार यही बतलाता यह न कभी निश्चयनय है || पहिले शुद्ध विवेचन कर ले वस्तु तत्त्व का निर्णय कर।
फिर निःशंकित होकर चेतन निज स्वरूप का निश्चय कर || ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्ति श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णार्घ्य नि. ।
आशीर्वाद
दोहा परम शुद्ध चिद्रूप ही मुक्ति भवन का द्वार । मोक्ष स्वरूपी है यही देता सौख्य अपार ॥
इत्याशीर्वाद :