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१२४ तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचम अध्याय पूजन रत्नत्रय विषयक श्रद्धा अतिशय वृद्धिंगत हो प्रभु ।
इसका ही आश्रय उत्तम निर्मल हृदयंगत हो विभु || १९. ॐ ह्रीं सचेतनाचेतनद्रव्यप्रीतिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निजब्रह्मधामस्वरूपोऽहम् । अतिमोही होकर मैंने शुभ अशुभ सभी को चाहा । आत्मिक चिद्रूप शुद्ध को मैंने न कभी भी चाहा ॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥१९॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२०) दुष्कराण्यपि कार्याणि हा शुभान्यशुभानि च ।
बहुनि विहितानीह नैव शुद्धात्मचिन्तनम् ॥२०॥ अर्थ- इस संसार में मैंने कठिन से कठिन भी शुभ और अशुभ कार्य किये। परन्तु आज तक शुद्धचिद्रूप की कभी चिन्ता न की। २०. ॐ ह्रीं दुष्करशुभाशुभकार्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
सरलबोधस्वरूपोऽहम् । अति कठिन शुभाशुभ कृत्यों को मैंने सदा किया है । चिद्रूप शुद्ध चिन्तन को मैंने उर में न लिया है | चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥२०॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२१) पूर्वे या विहिता क्रिया किल महामोहोदयेनाखिला मूढत्वेन मयेह तत्र महती प्रति समातन्वता | चिदरूपाभिरतस्य भाति विषवत् सा मंदमोहस्य मे,
सर्वस्मिन्नधुना निरीहमनसोऽतो धिग् विमोहोदयं ॥२१॥ -अर्थ- सासांरिक बातों में अतिशय को करने वाले, मोहनीय कर्म के उदय से मूढ बन,