________________
१३८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षष्टम अध्याय पूजन
हो मुक्ति लक्ष्मी से ही मेरा परिणय इस भव में । कैवल्य ज्ञान धारण कर जाऊं मैं मुक्ति सदन में ॥ वीरछंद
इन्द्र चक्रवर्ती पद विद्यावान कला कौशल बहु कीत्ति । रूप राज्य वैभव कुटुम्ब सब वाणी है अनित्य भवभीति ॥ वाहन बुद्धि दीप्ति तीर्थकरपना सभी हैं सदा अनित्य । एक शुद्ध चिद्रूप शाश्वत त्रैकालिक परमोत्तम नित्य ॥ इस अविनाशी ध्रुव का ही है ध्यान परम मंगलकारी । पर पदार्थ सब अल्पावधि में क्षय हो देते दुखभारी ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१०)
रागाद्या न विधातव्याः सत्यसत्यपि वस्तुनि ।
ज्ञात्वा स्वशुद्धचिद्रूपं तत्र तिष्ठ निराकुलः ॥१०॥
अर्थ- शुद्धचिद्रूप के स्वरूप को भले प्रकार जानकर भले बुरे किसी भी पदार्थ में राग द्वेष आदि न करो सर्व में समता भाव रक्खो । और निराकुल हो अपनी आत्मा में स्थिति करो ।
१०. ॐ ह्रीं सत्यसतिवस्तुविषयकरागादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निराकुलचिद्रूपोऽहम् |
निज चिद्रूप स्वरूप ज्ञान कर लो अपने परिणाम सुधार । भले बुरे में राग द्वेष बिन समता भाव रखो शिवकार || एक शुद्ध चिद्रूप ध्यान से यह संसार नाश होता । अतिहितकारी शिव सुखकारी निरुपम मोक्ष प्राप्त होता ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१०॥
ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।