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१४८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन सम्यक्त्व भेद विज्ञान बिना होता न कभी निश्चय जानो। महिमा है भेद ज्ञान निधि की इस महिमा को तो पहिचानो॥
चंदन मलयागिर वाला अब तो न मुझे भाता है । भव ताप विनाशक चंदन परिपूर्ण सौख्य लाता है || चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं || ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि. ।
स्वर्गादिक दाता अक्षत नंदन वन में मिल जाते । अक्षय पद के दाता ही निज अक्षत मुझे सुहाते || चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं || ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्रापप्ताय अक्षतं नि ।
पुण्यों के पुष्प सु कोमल नश्वर साता दायक हैं । निष्काम पुष्प ही मेरे चिर काम व्याधि नाशक हैं | चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं || ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनासनाय पुष्पं नि. ।
अनुभव रस भीने चरु की महिमा ही मुझे सुहायी । चिर क्षुधा रोग. क्षय करने की वेला मैंने पायी ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं || ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. ।