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६६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन जीव अजीव आस्रव संवर बंध निर्जरा मोक्ष प्रधान । यही प्रयोजन भूत तत्त्व हैं सात इन्हें लो पूरा जान ||
तद्विबस्य तदोकसो झगिति तत्काराय कस्यापि च, सर्वं गच्छति पापमेति सुकृतं तत्त्स्य किं नो भवेत् ॥१९॥ अर्थ- शुद्धचिद्रूप से ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अंतरायरूप घातिया कर्मों का नाश हो जाता है। क्योंकि वीतराग शुद्धचिद्रूप का नाम लेने से उनकी स्तुति करने से तथा उनकी मूर्ति और मंदिर बनवाने से ही जब समस्त पाप दूर हो जाते हैं और अनेक पुण्यों की प्राप्ति होती है, तब उनके ध्यान करने से तो मनुष्य को क्या उत्तम फल प्राप्त न होगा? अर्थात् शुद्धचिद्रूप का ध्यानी मनुष्य उत्तम से उत्तम फल प्राप्त कर सकता है ।
१९. ॐ ह्रीं विरागवपुषस्वरूपाय नमः ।
ज्ञानोकसस्वरूपोऽहम् ।
एक शुद्ध चिद्रूप ध्यान से घाति कर्म क्षय हो जाते । मात्र नाम लेने से सारे पुण्य चरण में आ जाते ॥ जिन गृह प्रतिमा बनवाने से अघ क्षय होते होता पुण्य । उससे अधिक ध्यान शुद्ध चिद्रूपी से होता है पुण्य ॥१९
ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२०) कौऽसौ गुणोस्ति भुवने न भवेत्तदा योदोषोऽथवा क इह यस्त्वरितं न गच्छेत् । तेषां विचार्य कथयंतु बुधाश्च शुद्धचिद्रूपकोऽहमिति ये यमिनः स्मरन्ति ॥२०॥
अर्थ- ग्रन्थकार कहते हैं प्रिय विद्वानों ! आप ही विचार कर कहें। जो मुनिगण मै शुद्धचिद्रूप हूं ऐसा स्मरण करने वाले हैं उन्हें कौन से तो वे गुण हैं जो प्राप्त नहीं होते और कौन से वे दोष हैं, जो उनके नष्ट नहीं होते। अर्थात् शुद्धचिद्रूप के स्मरण करने वालों को समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं, और उनके सब दोष दूर हो जाते हैं । २०. ॐ ह्रीं सकलदोषरहितचैतन्यगुणनिधिस्वरूपाय नमः ।
अनघस्वरूपोऽहम् ।