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९१ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान है ब्रह्मानंद स्वरूप आत्मा का गौरव वैभवशाली । रागा द्वेष से रहित सदा है ज्ञान सूर्य की उजियाली |
जयमाला
वीरछंद आत्म निरीक्षण अगर नहीं तो स्वाध्याय करना है व्यर्थ। बिना आत्मा निरखे परखे प्राप्त न होता सम्यक् अर्थ || बिना ज्ञान आलोक स्वयं का सौन्दर्य दिखता न कभी । बिना आत्म सौन्दर्य प्राप्ति के उर में सुख झिलता न कभी॥ अहंकार ममकार ह्रदय में पोषण कर भी हुआ न तृप्त । बिन धुंघरू पायल क्यों बजती अतः सदा ही रहा अतृप्त॥ परमात्मा से साक्षात् करने का है यदि कुछ उद्देश । निज आत्मा का अनुभव कर लो तजो अनात्मा का परिवेश || आखें है तो देख स्वयं को मन है तो निज चिन्तन कर। वाणी है तो बोल स्वयं से शीष झुकाकर वन्दन कर || दोनों हाथ अगर साबित हैं पंच महाव्रत झेल ह्रदय । दोनो पग यदि गमन योग्य हैं तो पाले शिव सौख्य निलय|| वस्तु स्वभाव धर्म को तजकर तू करता पर का उपचार। संप्रदायवादी बनकर तू करता झूठा धर्म प्रचार | आत्म स्वभाव धर्म को जानो तो हो जाए बेड़ा पार । किन्तु मूढ़ता के कारण तू भ्रमता रहता है संसार || सतत अनवरत भक्ति सहित निज परमात्मा को वन्दन कर। परपरमात्मा के दर्शन तज निज परमात्मा दर्शन कर॥ निज परमात्मा में रत हो जा हो जाएगा सिद्ध असंग । यह संसार सदा को ही फिर हो जाएगा पूरा भंग || पर परमातमा में रत है तो फिर निर्वाण नहीं होगा । निज परमात्मा नहीं मिला तो तू भगवान नहीं होगा।