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ताओ उपनिषद भाग ४
लेकिन उस तरफ जाने के लिए आप कोई चेष्टा नहीं कर सकते; आपकी कोशिश काम न आएगी। क्योंकि वह प्रसाद है। आपकी कोशिश का मतलब होगा कि आप सम्राट की तरह पहुंच गए मांगने। वह उसको मिलती है, जो जाता ही नहीं मांगने; जो मांग ही छोड़ देता है, उसको मिल जाती है।
वह सूफी फकीर होशियार रहा होगा। उसने आखिरी राज की बात अपने बगीचे पर लिख दी थी। 'वह मनुष्य के वश के बाहर है, लेकिन तो भी सबके ऊपर समान रूप से बरसती है।'
और निश्चित ही, इसीलिए समान रूप से बरसती है। क्योंकि अगर आपके वश के भीतर हो तो ताकतवर ज्यादा बरसा लेगा; कमजोर प्यासे रह जाएंगे। जोर-जबरदस्ती जो कर सकता है वह ज्यादा पर कब्जा कर लेगा; अधिक लोग तो क्यू में पीछे खड़े रह जाएंगे। वह समान रूप से सबके ऊपर बरस सकती है, क्योंकि आपके वश के बाहर है। आप कुछ कर नहीं सकते; आप सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं। आप सिर्फ राजी हो सकते हैं, तैयार हो सकते हैं। आप उसके आने के लिए बाधा न डालें, बस इतना काफी है। और आप कुछ भी नहीं कर सकते; आप रुकावट न डालें, बस इतना काफी है। आप खुले हों, द्वार-दरवाजे बंद न हों। वह कभी आपके दरवाजे पर आए तो बंद न पाए; बस इतना आप कर सकते हैं।
_इसलिए वह सबके ऊपर समान हो जाती है। कबीर को या कृष्ण को या बुद्ध को या मोहम्मद को जरा सा भी, इंच भर का फर्क नहीं पड़ता। बुद्ध सम्राट के लड़के रहे हों, रहे हों; और कबीर जुलाहे थे, तो थे। और बुद्ध बहुत सुसंस्कृत, सभ्य, तो रहें; और कबीर बिलकुल लट्ठ, बेपढ़े-लिखे गंवार। कोई फर्क नहीं पड़ता, वह वर्षा जब होती है तो उसकी मिठास में जरा भी फर्क नहीं है। क्योंकि उससे कोई संबंध नहीं है व्यक्ति का, ध्यान रखना। अगर व्यक्ति से संबंध हो, तो बुद्ध बाजी मार ले जाएंगे, कबीर को दिक्कत पड़ेगी। लेकिन व्यक्ति से कोई संबंध ही नहीं है उसका। आपका घड़ा सोने का है या मिट्टी का, इससे कोई संबंध ही नहीं है वर्षा को। आपका घड़ा खाली हो बस; सोने का हो तो भी भर जाएगा और मिट्टी का हो तो भी भर जाएगा। खाली होना शर्त है; घड़े का सोना होना और मिट्टी होना शर्त नहीं है।
इसलिए बेपढ़े-लिखे भी पहुंच जाते हैं। गरीब, दीन-हीन भी पहुंच जाते हैं। कमजोर, रुग्ण भी पहुंच जाते हैं। और कोई बुद्धिमानों से कम उन्हें मिलता है, ऐसा नहीं है। रत्ती भर कम नहीं मिलता। व्यक्ति-व्यक्ति का कोई फासला नहीं है उस वर्षा के लिए। आप जब भी अपने साथ राजी हो गए पूरे और आपने स्वीकार कर लिया कि मेरी नियति, मेरा स्वभाव, बस मैं ऐसा हूं, और उसमें आपने रत्ती भर फर्क करना छोड़ दिया-बड़ी से बड़ी तपश्चर्या यही है।
यह सुन कर आपको कठिनाई होगी। मैं आपसे कहता हूं, यह बड़ी से बड़ी तपश्चर्या है कि आप अपने साथ राजी हो जाएं और फर्क करना छोड़ दें। ___एक तीन महीने प्रयोग करके देखें। कुछ भी हो, जैसे हैं वैसे, तीन महीने कोई फर्क ही न करें। चोर हैं तो चोर और बेईमान हैं तो बेईमान, बुरे हैं तो बुरे, झूठे हैं तो झूठे, तीन महीने कोई फर्क ही न करें। जैसे हैं वैसे और उसका जो भी फल मिले उसको झेलने को राजी रहें। और आप तीन महीने में पाएंगे कि आपके भीतर नए आदमी का जन्म हो गया। वह जो अपने साथ राजी हो जाना है, वह इतनी बड़ी ऊर्जा है कि उस आग में सब जल जाता है जो कचरा है; सिर्फ सोना बचता है।
लेकिन इसके लिए, इस परम घटना के लिए कि वर्षा आपके ऊपर हो जाए, आप कुछ प्रत्यक्ष न कर सकेंगे। अप्रत्यक्ष कर सकते हैं: अपने को खाली, खुला छोड़ सकते हैं।
'और तब मानवीय सभ्यता का उदय हुआ और नाम आ गए। और जब नाम आ गए, तब आदमी के लिए
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