Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 69
________________ Svayambhūstotra 7 श्री सुपार्श्वनाथ जिन Lord Supārsvanatha स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभङ्गुरात्मा । तृषोऽनुषङ्गान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद् भगवान् सुपार्श्वः ॥ (7-1-31) सामान्यार्थ – जो अत्यन्त अविनाशी आत्मस्वरूप-शीलता है अर्थात् जो कर्म-मल से छूटकर अनन्तज्ञानादि गुणों का स्वामी होकर आत्मानन्द में नित्य मग्न रहना है वही जीवों का सच्चा प्रयोजन है, क्षणभंगुर भोग जीवों का स्वार्थ नहीं है। क्योंकि भोगों के भोगने से तृष्णा की वृद्धि होती है इसीलिए जो चाह की दाह है वह शान्त नहीं होती है। ऐसा वस्तु का विवेकपूर्ण स्वरूप विशिष्ट ज्ञानी भगवान् सुपार्श्वनाथ तीर्थङ्कर ने वर्णित किया है। Infallible meditation on the Self, rather than chasing the transient sense-gratifications, should be the real objective of the living beings. Indulgence in sense-gratification only leads to further craving and, therefore, it can never pacify the resultant anxiety. O Lord Supārśvanātha, you had thus elucidated the nature of reality. 44

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