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Svayambhūstotra
13 श्री विमलनाथ जिन
Lord Vimalanātha
य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥
(13-1-61)
सामान्यार्थ - ये जो नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि एकान्तरूप नय हैं वे परस्पर एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर अर्थात् स्वतन्त्र रह कर अपना व दूसरों का नाश करने वाले हैं। न तो कहने वाले का भला होता है न ही सुनने वाले का। परन्तु आप प्रत्यक्षज्ञानी व सर्व-दोषरहित विमलनाथ भगवान् के मत में वे ही नित्य-अनित्य आदि नय एक दूसरे की अपेक्षा रखते हुए अपना व दूसरों का उपकार करने वाले होकर यथार्थ तत्त्व स्वरूप होते हैं।
O Unblemished Lord Vimalanātha! Those who hold the onesided, standalone points of view such as describing a substances absolutely permanent (nitya) or transient (ksanika), harm themselves and others, but, as you had proclaimed, when the assertions are understood to have been made only from certain standpoints, these reveal the true nature of substances, and, therefore, benefit self as well as others.
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