Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 119
________________ Svayambhūstotra waves fear. You had dried up this river through the intense rays of the sun of non-attachment and renunciation and thus attained supreme effulgence. सुहृत् त्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते द्विषंस्त्वयि प्रत्ययवत् प्रलीयते । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ __ (14-4-69) सामान्यार्थ - हे जिनेन्द्र ! आप में जो भक्तिवान होता है अर्थात् जो आपके गुणों को स्मरण करता है वह लक्ष्मी के वल्लभपने को अर्थात् अनेक ऐश्वर्य-सम्पदा को प्राप्त करता है। जो आपसे द्वेष करता है अर्थात् आपकी निन्दा करता है ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव व्याकरण में प्रत्यय के लोप के समान नाश को प्राप्त होता है। आप तो उन दोनों पर अत्यन्त ही उदासीन रहते हैं, आपका तो उन पर न राग है न द्वेष है। आपकी यह चेष्टा बड़ी ही आश्चर्यकारी है। O Lord! The man with your devotion in his heart becomes the beloved of the goddess of prosperity and the man with malice gets obliterated like the elision of a suffix. But you remain totally indifferent to both; this posture of yours is highly astonishing. त्वमीदृशस्तादृश इत्ययं मम प्रलापलेशोऽल्पमतेर्महामुने । अशेषमाहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुधेः ॥ (14-5-70) 94

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