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Svayambhūstotra
तव रूपस्य सौन्दर्यं दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । द्वयक्षः शक्रः सहस्राक्षो बभूव बहुविस्मयः ॥
(18-4-89)
सामान्यार्थ - आपके शरीर सम्बन्धी सुन्दरता को देखकर दो नेत्रों का धारक इन्द्र तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए अतृप्त वह इन्द्र बहुत आश्चर्य को प्राप्त होता हुआ एक हजार नेत्रों का धारक हुआ था।
O Lord! On seeing the stunning beauty of your body, the lord of the devas (Indra) had transformed his two eyes into a thousand eyes but still remained discontented, and extremely astounded.
मोहरूपो रिपुः पापः कषायभटसाधनः । दृष्टिसंविदुपेक्षाऽस्त्रैस्त्वया धीर पराजितः ॥
(18-5-90)
सामान्यार्थ - हे धीर स्वामी अरनाथ ! क्रोध, मान, माया व लोभ इन चार कषायरूपी योद्धाओं की सेना से युक्त मोहनीय कर्म रूपी महापाप-रूप शत्रु को आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रय के दिव्य शस्त्रों के द्वारा पराजित किया था।
O Resolute Lord Aranātha! You had conquered through the weapon of the Three Jewels – right faith, right knowledge, and right conduct - the invincible enemy called delusion, which is the cause of demerit and is flanked by the army of passions.
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