________________
Lord Vira
Just as the magnificent elephant moves, discharging its templefluid, and rending the sides of the mountain, you had similarly moved gloriously, spreading out the true and sacred conceptions of non-injury, and freedom from blemishes like attachment.
बहुगुणसम्पदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नयभक्त्यवतंसकलं तव देव मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥
(24-8-143)
सामान्यार्थ - हे वीर भगवन् ! कर्णप्रिय वचनों के विन्यास से मनोज्ञ होने पर भी आपसे भिन्न जो अन्य (एकान्त) मत हैं वे बहुत से गुणों की सम्पत्ति से युक्त न होने से अपूर्ण हैं अर्थात् उनके सेवन से आत्मा का पूर्ण विकास नहीं हो सकता है। किन्तु आपका मत नैगमादि नयों के भंग-रूप (स्यादस्ति आदि) आभूषणों से अलंकृत है, बहुगुण सम्पन्न होने से पूर्ण है तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है।
O Lord! The doctrines of the others, though pleasant in articulation and composition, are void of essential qualities. But your doctrine which relies on naya (dealing, for the moment, only with a particular point of view, not denying the existence of the remaining points of view, not under consideration at that moment) and its classifications is admirably all-encompassing, and entirely laudable.
॥ श्रीसमन्तभद्राचार्यविरचितं स्वयम्भूस्तोत्रं समाप्तम् ॥
169