Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 193
________________ Svayambhūstotra सामान्यार्थ - हे जिनेन्द्र ! आप में मान और माया नहीं है अथवा जो भव्यजीव आपका आराधन करते हैं वे मान व माया से छूट जाते हैं। आपका जीवादि पदार्थों का जो प्रमाण-ज्ञान है वह मोक्ष की इच्छा रखने वाले भव्य जीवों के लिए अत्यन्त श्रेष्ठ व परम हितकारी है। आपने लक्ष्मी के मद को नष्ट करने वाला अथवा मोक्ष को प्राप्त करने वाली श्रीलक्ष्मी से युक्त ऐसे माया-रहित उत्कृष्ट यम (महाव्रत) तथा इन्द्रिय-विजय का उपदेश दिया है। 0 Jina, Bestower of the Wish to Liberation! You are free from conceit and deceitfulness. Your perfect knowledge of substances, souls and non-souls, is supremely propitious. You had promulgated the precepts of vows, and control of the senses, which bestow auspicious outcomes and are without any pretence. गिरिभित्त्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः स्रवद्दानवतः । तव शमवादानवतो गतमूर्जितमपगतप्रमादानवतः ॥ (24-7-142) सामान्यार्थ - हे भगवन् ! जिस प्रकार पर्वत के किनारों को खण्डन करने वाले, झरते हुए मद के दानी, उत्तम जाति के बलशाली हाथी का रुकावट से रहित गमन होता है, उसी प्रकार सर्व प्राणियों को अभयदान देते हुए तथा दोषों के उपशमन का उपदेश देने वाले आगम के रक्षक आपका उत्कृष्ट विहार हुआ था। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 168

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