Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 191
________________ Svayambhūstotra (दृष्ट) व परोक्ष (इष्ट) से विरोध-रूप है। इसलिए वह स्याद्वाद-रूप नहीं है अर्थात् वस्तु के भिन्न-भिन्न स्वभावों को सिद्ध करने वाला नहीं है। O Supreme Sage! Being qualified by the word 'syāt' (meaning, conditional, from a particular standpoint), your doctrine of conditional predications (syādavāda) is flawless as it is not opposed to the two kinds of valid knowledge (pramāņa) - direct (pratyaksa) and indirect (paroksa)*. The wisdom propounded by others, not being qualified by the word syāt', is fallacious as it is opposed to both, the direct as well as the indirect knowledge. *Indirect (paroksa) knowledge is obtained through the senses and the Scripture; it includes sensory cognition, remembrance, recognition, induction and deduction. त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्त्वाशयप्रणामामहितः । लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धामहितः ॥ (24-4-139) सामान्यार्थ - हे वीर ! आप सुरों व असुरों के द्वारा पूजित हो किन्तु मिथ्या-दृष्टि जीवों के अभक्त हृदयों से आप पूजित नहीं हो। अर्थात् जिस प्रकार से राग-द्वेष युक्त देवों की स्तुति की जाती है उस प्रकार से आपकी स्तुति नहीं हो सकती है। आप तीनों लोकों के प्राणियों के परम हितकारी हैं तथा उज्ज्वल मोक्षधाम को प्रकाशित करने वाली आवरण-रहित केवलज्ञान-रूप ज्योति से युक्त हैं। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 166

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