Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 189
________________ Svayambhūstotra 24 श्री वीर ( श्री महावीर, श्री वर्द्धमान) जिन Lord Vira (Lord Mahāvīra, Lord Vardhamāna) कीर्त्या भुवि भासि तया वीर त्वं गुणसमुच्छ्रया भासितया । भासोडुसभासितया सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभासितया ॥ (24-1-136) सामान्यार्थ - हे वीर जिनेन्द्र ! आप अपने उज्ज्वल आत्मीक गुणों से उत्पन्न निर्मल कीर्ति से इस पृथ्वी पर उसी प्रकार शोभा को प्राप्त हुए हो जिस प्रकार आकाश में कुन्द पुष्प की सी सफेद कान्ति लिए हुए चन्द्रमा नक्षत्रों की सभा में विराजित शोभता है। O Lord Vira! You had embellished this earth and attained sublime illustriousness due to the aggregate of qualities that you possessed, just as the moon, brilliant as Kunda (a kind of jasmine flower), looks magnificent in the midst of the constellations of stars. तव जिन शासनविभवो जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः । दोषकशासनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभाकृशासनविभवः ॥ (24-2-137) 164

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