Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 190
________________ Lord Vira सामान्यार्थ - हे जिनेन्द्र ! गुणों के अनुशासन से भव्य जीवों के संसार का नाश करने वाले आपके शासन का महात्म्य इस कलिकाल में भी जयवन्त है, सर्वोत्कृष्ट रूप से विद्यमान है। जिन्होंने अपने ज्ञान की महिमा से लोक-प्रसिद्ध हरिहरादिक के महात्म्य को कृश कर दिया है तथा दोष-रूप चाबुक के निराकरण करने में समर्थ ऐसे गणधरादि देव आपके शासन के महात्म्य की स्तुति करते हैं। O Lord Jina! Your doctrine that expounds essential attributes required of a potential aspirant to cross over the ocean of worldly existence (samsara) reigns supreme even in this strife-ridden spoke of time (pañcama kāla). Accomplished sages who have invalidated the so-called deities that are famous in the world, and have made ineffective the whip of all blemishes, adore doctrine. your अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादो द्वितयविरोधान्मुनीश्वरास्याद्वादः ॥ (24-3-138) सामान्यार्थ - हे मुनिनाथ ! आपका जो स्याद्वाद (अनेकान्त-रूप कथन) है वह दोष रहित है क्योंकि उसमें प्रत्यक्ष (दृष्ट) व परोक्ष (आगम, अनुमानादि, इष्ट) के द्वारा विरोध नहीं आता है। वह स्याद्वाद, ‘स्यात्’ या कथंचित् (किसी अपेक्षा से) वाचक शब्द से सहित, वस्तु के स्वभाव को यथार्थ कहने वाला है। इसके विपरीत जो एकान्त-रूप कथन है वह प्रत्यक्ष 165

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