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ये परस्खलितन्निद्राः स्वदोषेभनिमीलिनः । तपस्विनस्ते किं कुर्युरपात्रं त्वन्मतश्रियः ॥
Lord Aranatha
(18-14-99)
सामान्यार्थ – जो एकान्त मत के मानने वाले तपस्वी अनेकान्त मत में स्खलित-विरोध आदि दोषों को देखने में जागृत रहते हैं वे अपने एकान्त मत में क्या-क्या दोष आते हैं उनको देखने में हाथी के समान हो रहे हैं गज-निमीलन से युक्त हैं, अर्थात् देखी हुई वस्तु को भी अनदेखी करते हुए चलते हैं। वे अनेकान्त मत रूपी लक्ष्मी को पाने के लिए पात्र नहीं हैं, वे बेचारे क्या कर सकते हैं? न तो अपने पक्ष को सिद्ध कर सकते हैं न ही अनेकान्त मत का खण्डन कर सकते हैं।
Those who are ever ready to find faults, like that of vacillation, in the doctrine of manifold points of view (anekantavāda) and are impervious, like an elephant, to see the shortcomings in their own doctrine of absolutism (ekāntavāda), are not fit to acquire the treasure of your teachings. What can such tormented people do?
ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्तुमनीश्वराः ।
त्वद्विषः स्वहनो बालास्तत्त्वावक्तव्यतां श्रिताः ॥
(18-15-100)
सामान्यार्थ - हे अरनाथ भगवन् ! वे एकान्तवादी अपने मत के स्वघाती दोष को दूर करने में असमर्थ होकर आपके अनेकान्त मत से द्वेष करते हैं
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