Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 170
________________ Lord Naminātha self-dependent path to emancipation, which wise man will not engage himself in the praise of the supremely worshipful Lord Naminātha Jina? त्वया धीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्मनिगलं समूलं निर्भिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी । त्वयि ज्ञानज्योतिर्विभवकिरणैर्भाति भगवनभूवन्खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥ (21-2-117) सामान्यार्थ - हे विशिष्ट बुद्धि से युक्त नमि जिन ! शुद्ध आत्मस्वरूप में एकाग्र-चित्त वाले आपके द्वारा पुनर्जन्म के बन्धन को उसके मूल कारण सहित नष्ट कर दिया गया था। इसलिए आप विद्वज्जनों के लिए मोक्षमार्ग अथवा मोक्ष स्थान हैं। हे भगवन् ! आपकी केवलज्ञान - रूपी ज्योति की समर्थ किरणों के प्रकाशित होने पर अन्य एकान्तवादी जन उसी प्रकार हतप्रभ हो गए थे जिस प्रकार निर्मल सूर्य के सामने खद्योत (जुगनू) प्रभारहित हो जाते हैं। O Lord! By the power of meditation on the pure Self, you had snapped the root cause of the series of rebirths. You are, therefore, the quintessence of the path to liberation for the wise men. When you appeared with the bright rays of omniscience, those holding allegiance to other doctrines became lacklustre as the fireflies in the presence of the radiant sun. 145

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