Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 184
________________ Lord Pārsvanātha सामान्यार्थ - धरणेन्द्र नाम के नागकुमार देव ने जिन उपसर्ग से युक्त भगवान् पार्श्वनाथ को चमकती हुई बिजली के समान पीत कान्ति वाले बड़े-बड़े फणों के मण्डल रूपी मण्डप से उसी प्रकार वेष्टित कर दिया था जिस तरह काली संध्या के समय बिजली से युक्त मेघ पर्वत को वेष्टित कर देते हैं। At the time of the disturbance, the Dharanendra deva of the Nāgakumāra class had covered Lord Pārsvanātha with the bower-shaped spread of a large number of serpent-hoods, tawny like the glittering flashes of light, just as the thunderclouds cover the mountain at the fall of the dark night. स्वयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशात्य यो दुर्जयमोहविद्विषम् । अवापदार्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम् ॥ (23-3-133) सामान्यार्थ - जिन पार्श्वनाथ भगवान् ने अपने शुक्लध्यान रूपी खड्ग की तीक्ष्ण धार से अत्यन्त दुर्जय मोह-रूपी शत्रु को नष्ट करके, जो अचिन्त्य है तथा आश्चर्यकारक गुणों से युक्त है ऐसे त्रिलोक की पूजा के अतिशय के स्थान अर्थात् अरिहन्त पद को प्राप्त किया था। He had destroyed the invincible enemy called delusion with the sharp sword of pure meditation. He attained the excellent status of Arhat which is endowed with unimaginable and astounding qualities, and is worshipped in the three worlds. 159

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