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Svayambhūstotra
यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रमबन्ध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥
(23-4-134)
सामान्यार्थ – जिन पार्श्वनाथ भगवान् के घाति-कर्म रहित महात्म्य को तथा समस्त लोक के ईश्वर के रूप में देखकर वन में रहने वाले तपस्वी भी अपने मिथ्या-तप को निष्फल होता जानकर तथा उनके समान होने की इच्छा करते हुए उनके मोक्षमार्ग के उपदेश की शरण में आए थे।
After seeing his supreme status, free from the four types of inimical karmas, even those ascetics who dwelled in the forest realized the futility of their effort and took refuge in the path to liberation promulgated by Lord Pārśvanātha in order to attain the same supreme status.
स सत्यविद्यातपसां प्रणायकः समग्रधीरुग्रकुलाम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते विलीनमिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः ॥
(23-5-135)
सामान्यार्थ - जो सत्य विद्याओं व तपस्या का साधन बताने वाले थे, केवलज्ञान के धारक थे, उग्रवंश रूपी आकाश में चन्द्रमा के समान प्रकाशमान थे व जिन्होंने मिथ्या एकान्तमार्ग सम्बन्धी कुदृष्टियों से उत्पन्न विभ्रमों को अपने अनेकान्त मत से दूर कर दिया था, वे श्री पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर मुझ समन्तभद्र द्वारा सदा प्रणाम किये जाते हैं।
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