Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 171
________________ Svayambhūstotra विधेयं वार्यं चानुभयमुभयं मिश्रमपि तद् विशेषैः प्रत्येकं नियमविषयैश्चापरिमितैः । सदान्योन्यापेक्षैः सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहुनयविवक्षेतरवशात् ॥ (21-3-118) सामान्यार्थ - हे तीन लोक में महान् गुरु ! आपने बहुत से नयों की विवक्षा व अविवक्षा के वश जीवादि तत्त्व का वास्तविक स्वरूप कहा है। वह तत्त्व स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा अस्तिरूप है व पररूपादि चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है, क्रम से कहने पर अस्ति-नास्ति, एक साथ धर्मों को न कह सकने की अपेक्षा से वह तत्त्व अवक्तव्य है, वही तत्त्व अस्ति-अवक्तव्य है, नास्ति-अवक्तव्य है, अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य है। इस प्रकार तत्त्व एक दूसरे की सदा अपेक्षा रखने वाले अनेक धर्मों के द्वारा सप्तभंगी नियम के विषयभूत कहा गया है। O World Teacher! You had expounded the real nature of substances, soul etc., through your doctrine of ascertainment of their attributes through the instrumentality of standpoints (naya) and through relative affirmation and negation of these multiple attributes, by the rule of seven-fold predication (saptabhangi): 1. it is - syād asti; 2. it is not – syād nāsti; 3. it is indescribable – syād avaktavya, 4. it is and it is not – syād asti nāsti; and combinations thereof, i.e., 5. it is and it is indescribable - syād asti avaktavya; 6. it is not and it is indescribable – syād nāsti avaktavya; 7. it is, it is not and it is indescribable-syād asti nāsti avaktavya. 146

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