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Lord Naminātha
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं
न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तत्सिद्ध्यर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥
(21-4-119)
सामान्यार्थ - हे भगवन् ! सर्व प्राणियों की रक्षा अर्थात् पूर्ण अहिंसा को इस लोक में परम-ब्रह्म या परमात्मस्वरूप कहा गया है। जिस आश्रम के नियमों में जरा भी आरम्भ या व्यापार है वहाँ वह पूर्ण अहिंसा नहीं हो सकती है। इसीलिए उस पूर्ण अहिंसा की सिद्धि के लिए परम दयालु होकर आपने दोनों ही - बाह्य और आभ्यन्तर - परिग्रहों का त्याग कर दिया था। जो विकारमय वस्त्राभूषण आदि यथाजात दिगम्बर लिंग से विरोधी वेष तथा परिग्रह में आसक्त हैं उनका दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग नहीं होता है।
O Lord Jina! Desisting from injury to living beings is known in this world as the Supreme Holiness. This Supreme Holiness cannot be found in hermitages which advocate even the slightest of activity (ārambha) that causes pain and suffering to the living beings. Therefore, with extreme benevolence, to attain the purity of non-injury, you had relinquished both the internal as well as the external attachments, including the degrading clothes and other add-ons to the body.
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