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Svayambhūstotra
20 श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन Lord Munisuvratanātha
अधिगतमुनिसुव्रतस्थितिर्मुनिवृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः । मुनिपरिषदि निर्बभौ भवानुडुपरिषत्परिवीतसोमवत् ॥
____ (20-1-111) सामान्यार्थ - जो मुनि योग्य शोभनीक व्रतों में निश्चित स्थिति रखने वाले हैं, जो मुनियों में प्रधान मुनिनाथ हैं तथा जिन्होंने चार घातिया कर्मरूपी पापों को दूर कर डाला है, ऐसे श्री मुनिसुव्रत तीर्थकर आप मुनियों की सभा में उसी प्रकार शोभा को प्राप्त हुए थे जिस प्रकार नक्षत्रों के समूह से परिवेष्टित चन्द्रमा शोभा को प्राप्त होता है।
O Lord Munisuvratanātha! You had attained the excellent observance of the vows of the sages; you are the ascetic supreme, and utterly pristine (having destroyed the inimical karmas). You stood out in the assembly of the sages like the moon in the midst of the constellations of stars.
परिणतशिखिकण्ठरागया कृतमदनिग्रहविग्रहाभया । तव जिन तपसः प्रसूतया ग्रहपरिवेषरुचेव शोभितम् ॥
(20-2-112)
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