Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 159
________________ Svayambhūstotra यस्य समन्ताज्जिनशिशिरांशोः शिष्यकसाधुग्रहविभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जननसमुद्रत्रासितसत्त्वोत्तरणपथोऽग्रम् ॥ (19-4-109) सामान्यार्थ - जिन मल्लिनाथ स्वामी रूपी चन्द्रमा के चारों ओर उनके शिष्य - साधुगण रूपी ग्रह - तारकों की सम्पत्ति का विभव विद्यमान था और जिनका अपना तीर्थ (शासन) भी संसार रूपी समुद्र से भयभीत प्राणियों को तारने के लिए मुख्य मार्ग था। Just as an assemblage of planets and stars surrounds the moon, a galaxy of disciple saints had surrounded Lord Mallinātha Jina, and his instructions were like a ford for the terror-stricken people to cross the worldly ocean (samsāra). यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निर्ध्यानमनन्तं दुरितमधाक्षीत् । तं जिनसिंहं कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥ (19-5-110) सामान्यार्थ - जिन्होंने शुक्लध्यान - रूपी उत्कृष्ट तप की अग्नि से अनन्त अष्ट-कर्म रूपी पापों को भस्म कर डाला था उन जिनसिंह (जिनेन्द्रों में प्रधान), कृतकृत्य तथा शल्यरहित भगवान् मल्लिनाथ स्वामी की शरण को मैं प्राप्त होता हूँ। He, who had burnt the heap of endless karmas with the powerful fire of the highest order of pure meditation (sukladhyāna), who 134

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