Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 149
________________ Svayambhūstotra तव वागमृतं श्रीमत् सर्वभाषास्वभावकम् । प्रीणयत्यमृतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥ (18-12-97) सामान्यार्थ - आपका पदार्थों का यथार्थ-रूप से कथन करने वाला व सर्व प्राणियों की भाषा-रूप होने के स्वभाव को धारण करने वाला वचन रूपी अमृत समवसरण की सभा में सर्वत्र व्याप्त होकर प्राणियों को अमृत के समान तृप्त करता है। Your divine voice expounding the reality pervades the heavenly Pavilion (samavasaraņa), is heard and understood by all present in their respective tongue (ardhamāgadhi bhāṣā), and is soothing, like nectar, to all living beings. अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात् तदयुक्तं स्वघाततः ॥ (18-13-98) सामान्यार्थ - हे भगवन् ! आपका अनेकान्त मत सत्य है, उससे विपरीत एकान्त मत असत्य है। उस एकान्त मत के आश्रय से कहा गया सर्व ही कथन मिथ्या रूप है तथा अपना ही घातक होने से सर्वथा अनुचित है। Your doctrine of manifold points of view (anekāntavāda) is genuine, and its opposite, based on absolutism (ekāntavāda), is null and void as it is fallacious. Since absolutism is selfcontradictory, it is fallacious. 124

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