Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 143
________________ Svayambhūstotra 18 श्री अरनाथ जिन Lord Aranātha गुणस्तोकं सदुल्लङ्घ्य तद्बहुत्वकथा स्तुतिः । आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥ (18-1-86) सामान्यार्थ - हे अरनाथ जिन ! गुणों की अल्पता का उल्लंघन करके उनकी अधिकता का कथन करना स्तुति कहलाती है। किन्तु आपके गुण तो अनन्त हैं इसलिए उनका वर्णन करना अशक्य है, तब आपकी स्तुति किस प्रकार संभव है? O Lord Aranātha Jina! Extolling the virtues of a man involves transgression of his existent qualities by exaggerated expressions, but it is impossible to express your infinite virtues and, as such, how can one extol you? तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीर्तेर्नस्ततो ब्रूयाम किञ्चन ॥ (18-2-87) 118

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