Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 144
________________ Lord Aranatha सामान्यार्थ - यद्यपि आपके गुणों की स्तुति अशक्य है तो भी आप मुनियों के स्वामी और पवित्र कीर्तिधारी व दिव्यध्वनि प्रकाशक के केवल नाम का उच्चारण ही यदि भक्तिपूर्वक किया जाए तो हमको पवित्र कर देता है इसलिए कुछ कथन करते हैं। (Although it is not possible to express your infinite virtues -) The lord of the sages and the possessor of sacrosanct glory! The utterance, with devotion, of only your name has the power to make one pure; I, therefore, will say a little. लक्ष्मीविभवसर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलाञ्छनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्तृणमिवाभवत् ॥ (18-3-88) सामान्यार्थ - लक्ष्मी के वैभव रूप सर्वस्व से युक्त तथा सुदर्शन चक्र के चिह्न सहित जो सार्वभौम साम्राज्य आपको प्राप्त था वह आप मोक्ष की इच्छा रखने वाले के लिए जीर्ण तृण के समान हो गया । When you aspired for liberation, you left behind, as a mere nothing blade of grass, your boundless empire which was endowed with the abundance matched only by the splendour of goddess Laksmi, and whose emblem was the divine Sudarsana cakra. 119

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