Book Title: Swayambhustotra
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 146
________________ Lord Aranātha कन्दर्पस्योद्धरो दर्पस्त्रैलोक्यविजयार्जितः । हृपयामास तं धीरे त्वयि प्रतिहतोदयः ॥ (18-6-91) सामान्यार्थ – तीनों लोकों के प्राणियों को जीत लेने से पैदा हुआ कामदेव के बहुत भारी अहङ्कार का उदय आपके परम निश्चल चित्त के समक्ष नाश को प्राप्त हो गया था तथा इस प्रकार आपने उस कामदेव को लज्जित कर दिया था। You had abashed Kāmadeva (the god of love and erotic desire) by blocking his advance through your steadfastness; you overpowered his overbearing arrogance that was due to his winning over the beings of all the three worlds. आयत्यां च तदात्वे च दुःखयोनिर्दुरुत्तरा । तृष्णानदी त्वयोत्तीर्णा विद्यानावा विविक्तया ॥ (18-7-92) सामान्यार्थ - हे भगवन् ! परलोक तथा इस लोक में जो दु:खों की उत्पत्ति का कारण है और जिसका पार करना अत्यन्त कठिन है ऐसी तृष्णा-रूपी नदी को आपने निर्दोष ज्ञान-रूपी नौका के द्वारा पार कर लिया था। The lust for sensual pleasures is like the river that is the harbinger of misery in this world and the next, and is extremely difficult to cross. With the help of the boat of your unblemished knowledge, O Lord, you had crossed this river. 121

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