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Svayambhūstotra
pure Self, he shone with divine splendour appertaining to the Arhat in the majestic congregation of the devas and the men.
यस्मिन्नभूद् राजनि राजचक्रं मुनौ दयादीधिति धर्मचक्रम् । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलि देवचक्रं ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्तचक्रम् ॥
(16-4-79) सामान्यार्थ - जिन शान्तिनाथ भगवान् के समक्ष राज्य-अवस्था में राजाओं का समूह हाथों को जोड़े हुए खड़ा रहता था, साधु-अवस्था में दयामई किरणों का धारी रत्नत्रय-रूपी धर्मचक्र वशीभूत हो गया था, पूजनीय अरिहन्त-अवस्था में देवों का समूह बार-बार हाथ जोड़े हुए उपस्थित रहा करता था तथा शुक्लध्यान के सन्मुख होने पर सम्पूर्ण कर्मों का समूह क्षय को प्राप्त होता हुआ बद्धाञ्जलि हुआ था।
When he was the universal king, the congregation of kings bowed to him with folded hands, when he became an ascetic, the effulgent rays of benevolence were under his possession, when he became the venerable Arhat, the congregation of the devas bowed to him over and over again, and when he embraced pure concentration (of the fourth order), he subjugated the heap of karmas.
स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्तेर्विधाता शरणंगतानाम् । भूयाद्भवक्लेशभयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥
(16-5-80)
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