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Svayambhūstotra
हुत्वा स्वकर्मकटुकप्रकृतीश्चतस्रो
___ रत्नत्रयातिशयतेजसि जातवीर्यः । बभ्राजिषे सकलवेदविधेर्विनेता व्यभ्रे यथा वियति दीप्तरुचिर्विवस्वान् ॥
(17-4-84) सामान्यार्थ - अपने आत्मा के साथ बंधी हुई चार ज्ञानावरणादि अशुभ प्रकृतियों का सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप अग्नि के महान् तेज से क्षय करके, अनन्तवीर्य को रखने वाले तथा सम्पूर्ण ज्ञान की विधि के प्रकाश करने वाले आप इस प्रकार शोभायमान हुए थे जैसे मेघों से रहित आकाश में तेजस्वी सूर्य शोभता है।
With the instrumentality of the blazing power of the Three Jewels (ratnatraya) – right faith, right knowledge, and right conduct - you destroyed the four inimical karmas associated with your soul. Thereupon, as the possessor of infinite energy and promulgator of true knowledge, you shone like the bright sun in clear sky.
यस्मान्मुनीन्द्र तव लोकपितामहाद्या
विद्याविभूतिकणिकामपि नाप्नुवन्ति । तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः
स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः ॥
(17-5-85)
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