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Svayambhūstotra
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श्री शान्तिनाथ जिन Lord Santinātha
विधाय रक्षां परतः प्रजानां राजा चिरं योऽप्रतिमप्रतापः । व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्तिर्मुनिर्दयामूर्तिरिवाघशान्तिम् ॥
(16-1-76)
सामान्यार्थ - जो शान्ति जिनेन्द्र शत्रुओं से प्रजाजनों की रक्षा करते हुए चिरकाल तक पहले अतुल्य पराक्रमी राजा हुए और फिर जिन्होंने स्वयं ही मुनि होकर दया की मूर्ति की तरह पापों की शान्ति की।
First, Lord Santinātha Jina, for a long period of time, wielded supremacy as a king and provided protection to his subjects from enemies; later on, on his own, became an ascetic and, as the embodiment of benevolence, pacified evil tendencies.
चक्रेण यः शत्रुभयङ्करेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जयमोहचक्रम् ॥
(16-2-77)
सामान्यार्थ – जो शान्ति जिन शत्रुओं के लिए भय उत्पन्न करने वाले सुदर्शन चक्र के प्रताप से सर्व राजाओं के समूह को जीतकर चक्रवर्ती राजा
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