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Lord Kunthunātha
तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासा
__ मिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्त
मित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥
(17-2-82)
सामान्यार्थ - विषयकांक्षा-रूप अग्नि की ज्वालाएँ संसारी जीव को चारों
ओर से जलाती हैं। अभिलषित इन्द्रिय-विषयों के वैभव से इन विषयकांक्षा-रूप अग्नि की ज्वालाओं की शान्ति नहीं होती है, किन्तु सब
ओर से वृद्धि ही होती है क्योंकि इन्द्रिय-विषयों का स्वभाव ही ऐसा है। इन्द्रिय-विषय शरीर के संताप को दूर करने में निमित्त कारण मात्र है, विषयकांक्षा-रूप अग्नि की ज्वालाओं का उपशमन करने वाला नहीं होता। ऐसा जानकर आप इन्द्रिय-विषय सौख्य से पराङमुख हो गए थे।
The fire of lust burns the worldly beings from all sides. Indulgence in sensual pleasures does not calm down the lust but, as is the nature of the senses, intensifies it. Such indulgence is only an external palliative. O Lord! Knowing this, you became averse to the pleasures appertaining to the senses.
बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्व
माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन्
ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने ॥
(17-3-83)
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