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Svayambhūstotra
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श्री धर्मनाथ जिन
Lord Dharmanātha
धर्मतीर्थमनघं प्रवर्तयन् धर्म इत्यनुमतः सतां भवान् । कर्मकक्षमदहत्तपोऽग्निभिः शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः ॥
(15-1-71)
सामान्यार्थ - हे भगवन् ! निर्दोष धर्मतीर्थ को प्रवर्तित करने वाले आप सत्पुरुषों के द्वारा 'धर्म' इस नाम के धारक माने गए हैं। तथा आपने तप-रूपी अग्नियों के द्वारा कर्म-रूपी वन को जलाया है और अविनाशी सुख को प्राप्त किया है इसलिए आप सत्पुरुषों के द्वारा 'शङ्कर' नाम से युक्त भी माने गए हैं।
O Lord! Since you had promulgated the immaculate ford (tīrtha) of piety (dharma), you were appropriately named ‘Dharma’ by learned sages. Since you had attained immortal bliss by burning the forest of karmas by the fires of austerity, you are also known as ‘Sankara' – the Benefactor.
देवमानवनिकायसत्तमैरेजिषे परिवृतो वृतो बुधैः । तारकापरिवृतोऽतिपुष्कलो व्योमनीव शशलाञ्छनोऽमलः ॥
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(15-2-72)