________________
Svayambhūstotra
नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छिता रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥
(13-5-65)
सामान्यार्थ - हे भगवन् ! क्योंकि आपके द्वारा बताए हुए 'स्यात् ' पद रूपी सत्य लक्षण से चिह्नित जो नय हैं वे रस (पारा आदि) से पूर्ण लोह धातु के समान अभिप्रेत फल (स्वर्णरूप परिणत होना) को देने वाले हैं इसलिए आत्महित को चाहने वाले गणधरादि देव आपको ही नमस्कार करते हैं।
O Lord! Since your assertions (naya), qualified by the use of the word ‘syāt’ – in some respect, thus excluding the absolute onesided viewpoint - bring about the intended meaning, these are like an alchemic solution which has the power to turn iron into gold; the wise men desirous of their well-being, therefore, pay homage to you.
9:0