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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
लेकिन गुणपर्यायें तो ऐसी पर्यायें नहीं हैं। वे तो अपने-अपने द्रव्य के साथ ऐसी सम्बद्ध है कि कभी भिन्न हो ही नहीं सकती। क्योंकि पर्याय द्रव्य के बिना कभी होता नहीं तथा द्रव्य पर्याय बिना कभी नहीं रह सकता। अत: किसी भी एक का अस्तित्व ही दोनों का अस्तित्व है, इसलिए उसका अस्तित्व, असमानजातीय द्रव्य पर्याय के जैसा नहीं है। इसलिये इससे भी भेदज्ञान हुए बिना आत्मोपलब्धि संभव नहीं है, लेकिन इससे भेदज्ञान करने की शैली उपरोक्त शैली से भिन्न है । इसमें तो पर्याय दृष्टि से देखो तो, जैसी पर्याय होती है उस समय द्रव्य, उस पर्याय रूप ही दिखने लग जाता है। लेकिन ज्ञानी का ज्ञान तो पर्याय को ज्ञेय ही नहीं बनाता, वह तो अभेद पदार्थ को ज्ञेय बनाता है। अत: वह पर्याय कैसी भी हो, ज्ञानी को मोह उत्पादन का कारण नहीं बनती। ज्ञानी को तो सम्यक् नय प्रगट हो जाने से, उसका ज्ञान तो मुख्य-गौण व्यवस्थापूर्वक ही कार्य करता है तथा उसको द्रव्यदृष्टि प्रगट हो जाने से, वह ज्ञेयों को भी द्रव्यार्थिकनय रूपी ज्ञानचक्षु के द्वारा ही जानता है। अत: वस्तु में विशेष अर्थात् पर्यायें विद्यमान होते हुए भी, इन विशेषों को गौणकर, मात्र
अभेद सामान्य ही अर्थात् पदार्थ ही ज्ञेय बनता है। पर्यायें रहते हुए भी पर्यायभेद नहीं रहता। अत: पर्यायजन्य असमानता का अभाव हो जाने से राग का उत्पादन ही नहीं होता। यही कारण है कि उसको मोह उत्पन्न नहीं होता। अत: प्रवचनसार की शैली में ज्ञान-ज्ञेय के विभागीकरण से वास्तव में तो विभावगुण पर्याय का अस्तित्व ही नहीं रहता। वह तो द्रव्य में सम्मिलित रहते हुए भी ज्ञानी के ज्ञान का ज्ञेय नहीं बनती । अत: उसके ज्ञान में तो भिन्न पर्याय का अस्तित्व ही नहीं रहता। इसलिए भाग-४ में इसकी चर्चा नहीं की गई है लेकिन भाग-५ में इस पर चर्चा की जा रही
भाग-५ की चर्चा का मुख्य विषय होगा विभाव गुणपर्यायों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराकर, उससे भी त्रिकाली ज्ञायक भाव भिन्न कैसे हो? यह समझने की मुख्यता से चर्चा होगी। इस चर्चा का मूल आधार समयसार ग्रंथाधिराज रहेगा।
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