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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
में जन्म-मरण का अन्त करने वाला बीजरूप सम्यग्दर्शन जीव को हुआ नहीं है। ऐसे सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिये, पर्याय तथा भेद को गौण करके व्यवहार कहकर उसे असत्यार्थ कहा है ।"
“यहाँ कहते हैं कि त्रिकाली अभेददृष्टि में भेद दिखाई नहीं देते- इससे उसकी दृष्टि में भेद अविद्यमान, असत्यार्थ ही कहा जाता है। किन्तु ऐसा नहीं समझना कि भेदरूप कोई वस्तु नहीं है, द्रव्य में गुण है ही नहीं, पर्याय है ही नहीं, भेद है ही नहीं । आत्मा में अनन्त गुण हैं, वे सब निर्मल हैं। दृष्टि के विषय में गुणों का भेद नहीं है, किन्तु अन्दर वस्तु में तो अनन्त गुण हैं।"
इसीप्रकार इस विषय को विस्तारपूर्वक स्पष्ट करने वाली समयसार की गाथा १४ की टीका गंभीरतापूर्वक समझने योग्य है । वह टीका अविकलरूप से प्रस्तुत है :
" टीका :- निश्चय से अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त - ऐसे आत्मा की अनुभूति शुद्धनय है, और वह अनुभूति आत्मा ही है, इसप्रकार आत्मा एक प्रकाशमान है । " शुद्धनय, आत्मा की अनुभूति या आत्मा सब एक ही हैं, अलग नहीं है। यहाँ शिष्य पूछता है कि जैसा ऊपर कहा है वैसी आत्मा की अनुभूति कैसे हो सकती है ? उसका समाधान यह है – बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव अभूतार्थ हैं इसलिये यह अनुभूति हो सकती है। इस बात को दृष्टान्त से प्रगट करते हैं- जैसे कमलिनी - पत्र जल में डूबा हुआ हो तो उसका जल से स्पर्शित होने रूप अवस्था से अनुभव करने पर जल से स्पर्शित होना भूतार्थ है - सत्यार्थ है, तथापि जलसे किंचित् मात्र भी न स्पर्शित होने योग्य कमलिनी- पत्र के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर जल से स्पर्शित होना अभूतार्थ है - असत्यार्थ है । इसीप्रकार अनादि काल से बंधे हुए आत्मा का, पुद्गल कर्मों से बंधने - स्पर्शित होनेरूप अवस्था से अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता
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