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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान)
(१६१ यही कारण है कि दर्शनोपयोग का काल अतिअल्प रहता है तथा ज्ञानोपयोग का काल उससे लंबा होने के कारण चेतना का समस्त कार्य ज्ञान के माध्यम से ही सम्पन्न होता हुआ ज्ञात होता है और जिनवाणी में भी ज्ञान को ही आत्मा को पहिचानने के लिये लक्षण भी कहा है एवं ज्ञान की मुख्यता से ही आत्मा को संबोधन किया गया है तथा भूल करने का अथवा भूल सुधारने का दायित्व भी एक ज्ञान को ही बताया गया है। इसलिये ज्ञान की भूल ही संसार मार्ग एवं ज्ञान की स्वाभाविक स्थिति ही मोक्षमार्ग है।
___ अनन्तसुख की विपरीतता अब तीसरे अनन्त चतुष्टय में आये हुये अनन्त सुख के संबंध में भी संसारी जीव के माध्यम से ही विचार करना है। विचार करने पर समझ में आता है कि सुख की विपरीतता ही दुःख है। संसारी प्राणी निरंतर दुःख का ही वेदन कर रहा है, और इसका अभाव कर सुखी होना चाहता है। ऐसे सुख की पराकाष्ठा का वेदन - अनुभव जिनको हो, वे ही सिद्ध भगवान हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ७८ पर कहा है :
“इस जीव का प्रयोजन तो एक यही है कि दुख न हो और सुख हो, किसी जीव के अन्य कुछ भी प्रयोजन नहीं है तथा दुःख का न होना, सुख का होना एक ही है, क्योंकि दुःख का अभाव वही सुख है और इस प्रयोजन की सिद्धि जीवादिक का सत्य श्रद्धान करने से होती है।"
संसारी जीव के दुःख के संबंध में विस्तार से विचार करें तो स्पष्ट ज्ञात होगा कि प्राणी मात्र आकुलता को सहन नहीं कर सकने के कारण उसके प्रतीकार करने के प्रयासों में ही निरन्तर लगा रहता है और उसमें किंचित भी सफलता प्राप्त हो जाने पर अपने को सुखी मानने लगता है
और असफल होने पर आकुलता और भी बढ़ जाने से दुःखी अनुभव करने लगता है । इस अनुमान से ही स्पष्ट है कि जब आकुलता के अभाव
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