Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 210
________________ देशनालब्धि की मर्यादा) (२२५ अतिशयता से भयंकर है ऐसे भवसागर को पार उतरकर, शुद्धस्वरूप परमामृत समुद्र को अवगाह कर, शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है। विस्तार से बस हो। जयवंत वर्ते वीतरागता जो कि साक्षात् मोक्षमार्ग का सार होने से शास्त्रतात्पर्यभूत है। तात्पर्य द्विविध होता है - सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । उसमें, सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रत्येक गाथा में प्रतिपादित किया गया है, और शास्त्रतात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है : सर्व पुरुषार्थों में सारभूत ऐसे मोक्षतत्व का प्रतिपादन करने के हेतु से जिसमें पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य के स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तु का स्वभाव दर्शाया गया है, नव पदार्थों के विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बंधमोक्ष के संबंधों ( स्वामी ), बंधमोक्ष के आयतन ( स्थान ) और बंध-मोक्ष के विकल्प ( भेद) प्रगट किये गये हैं, निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्ग का जिसमें सम्यक् निरूपण किया गया है और साक्षात् मोक्ष के कारणभूत परम वीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है - ऐसे इस यथार्थ परमेश्वर शास्त्र का, परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है। द्वादशांग का सार एकमात्र वीतरागता उपरोक्त सभी आगम आधारों से हमारी उपरोक्त शंका निर्मूल हो जाती है और स्पष्ट हो जाता है कि हमें तो मोक्ष अर्थात् सर्वोत्कृष्ट शांति प्राप्त करना है। उसका उपाय तो मात्र एक वीतरागता ही है। इसलिये समस्त द्वादशांग का अभ्यास करो तो उसमें से भी मात्र एक ही मा समझना होगा कि "आत्मा में वीतरागता कैसे उत्पन्न हो।" उसी रा' को किसी भी ग्रंथ में से अथवा ज्ञानी पुरुषों के समागम द्वारा . जहाँ से भी जैसे भी प्राप्त हो सके अर्थात् समझ में आ सके, वहीं से एकमात्र वही मार्ग प्राप्त कर लेना चाहिए। यही मात्र एक आवश्यक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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