Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 238
________________ देशनालब्धि की मर्यादा) (२५३ किया जा सकता। प्राप्त करने के लिए अर्थात् उपयोग में प्रगटता-प्राप्त करने के लिए तो प्रायोग्यलब्धिपूर्वक करणलब्धि पार करके ही, आत्मानुभव पूर्वक सिद्ध भगवान के आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का आंशिक स्वाद प्रगट किया जा सकता है। यह दशा प्राप्त होने पर ही, अपना आत्मा ज्ञायक होते हुए भी अकर्ता स्वभावी है, ऐसी श्रद्धा दृढ़तम हो जाती है और ऐसा ही आत्मा नि:शंक सम्यक्दृष्टि बन जाता है। वह शीघ्र ही सिद्ध भगवानों की टोली में मिल जाने वाला है, संसार का किनारा आ गया है, ऐसी उसको नि:शंक श्रद्धा हो जाती है और वह जीव अल्पकाल में ही सिद्ध गति को प्राप्त भी कर लेता है। इसप्रकार देशनालब्धि के काल में ही अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावी आत्मा का यथार्थ निर्णय होकर, ज्ञायक भाव में अपनी विकल्पात्मक भूमिका में ऐसा दृढ़तम विश्वास जाग्रत हो जाना चाहिए कि मेरा अस्तित्व तो मात्र ज्ञायक अकर्ता स्वभावी ही है। साथ में होने वाले पर्यायगत अनेक ज्ञेय भावादि वे मैं नहीं, और मैं उनका नहीं, वे उनके हैं तो बने रहें, मेरे ज्ञान में ज्ञात भी हों तो पर ज्ञेय तरीके ही तो ज्ञात होते हैं अत: वे भी बने रहें लेकिन मैं तो उन सभी के प्रति अकर्ता स्वभावी हूँ। ऐसी दृढ़तम श्रद्धा विकल्पात्मक भूमिका में ही उत्पन्न हो जाने पर रुचि पर की ओर से व्यावृत्त रहने से, उपेक्षा स्वभावी बनी रहने से, आत्मा का उपयोग, अपने अकर्ता ज्ञायक स्वभावी आत्मा में घुस जाने को एकत्व कर लेने को उद्योत होता है वहीं से प्रायोग्यलब्धि का प्रारम्भ होता है। निष्कर्ष यह है कि देशनालब्धि के काल में ही यथार्थ निर्णय करने का पुरुषार्थ होता है, ऐसे निर्णय करने में ही मेरे विवेक -बुद्धि का यथार्थ प्रयोग एवं यथार्थ मार्ग बताने वाले सच्चे उपदेश एवं उपदेशक को प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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