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देशनालब्धि की मर्यादा )
स्वभावी ज्ञायक तत्त्व के उपयोगात्मक अनुभव के पूर्व, हमारे निर्णय में स्पष्टता होनी चाहिये । अतः यह कथन समझना अनिवार्य है ।
अभेद - अखण्ड- एक ज्ञायक स्वभावी आत्मा की अभेदता समझने की विधि
उपरोक्त विषय को भी इसी भाग में सम्मिलित कर पूरा विषय का ही इसमें समापन करने का संकल्प था । लेकिन वर्तमान यह भाग ही लगभग २४० पृष्ठ का हो गया और उपरोक्त विषय का भी समावेश करने से इसका आकार बहुत बढ़ जाता । पाठकगणों के शीघ्र प्रकाशन प्राप्त होने की आतुरता को देखते हुए तथा अपनी आयु की भी अनिश्चितता होने के कारण, जितना विषय तैयार हो चुका, उसे ही प्रकाशन करा देने के उद्देश्य से उपरोक्त विषय आगामी भाग में आयेगा, पाठकगण क्षमा करें ।
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इसप्रकार इस पांचवें भाग का समापन होता है । आगामी भाग में, प्रायोग्यलब्धि के पूर्व सविकल्पज्ञान की भूमिका के द्वारा ही, अपना ज्ञान- श्रद्धान जो अनेकताओं और भेदों में तथा ज्ञेयों आदि में फैला हुआ है, उसी ज्ञान - श्रद्धान को, भेद- ज्ञान के द्वारा अभेद - अखण्ड- एक ज्ञायक भाव में समेटकर, ऐसे निर्णय पर पहुंचने का पुरुषार्थ करना, कि मेरा अस्तित्व तो अनादि अनन्त एक ज्ञायक भाव रूप ही है अतः मुझे तो मात्र उसही में मेरे पने की श्रद्धा अर्थात् अहमपना स्थापित कर एक मात्र वही जानने योग्य होने से उसी को जानने की रुचि एवं उसही में अपने उपयोग को लीन हो जाने की चेष्टा ही वास्तव में देशनालब्धि की पराकाष्ठा है । ऐसे तीव्रतम रुचिपूर्वक निर्णय को ही आत्मानुभव का मूल कारण बताया है । पूज्य श्री कानजीस्वामी ने अध्यात्म संदेश के पृष्ठ ५४ में कहा है कि “पहिले विचार दशा में ज्ञान ने जिस स्वरूप को लक्ष्य में लिया था उसी
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