Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 239
________________ २५४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ करने में अपने विवेकपूर्वक प्राप्त करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी, आत्मार्थी पर है, अत: बहुत सावधानी पूर्वक यथार्थ मार्ग ग्रहण करना चाहिए । भेदपूर्वक किये गये कथन मात्र अभेद को समझाने के लिये ही होते हैं सुखी होने का उपाय पुस्तक के उपरोक्त पांचों भाग के कथन एकमात्र, अभेद - अखण्ड - त्रिकाली - ज्ञायक- अकर्ता स्वभावी आत्मा को समझाने के लिये ही किये गये हैं, पर्यायगत अनेक प्रकार के भावों के तथा ज्ञेयों के कारण ज्ञान में ज्ञात होने वाली अनेकताओं एवं विश्व के अनन्तानन्त द्रव्यों की अनेकताओं के बीच में स्थित रहते हुए भी, वह त्रिकाली-ज्ञायक स्वभाव तो उन सबसे अछूता एवं भिन्न कैसे बना हुआ है। इन अनेकानेक स्वभावों के बीच रहते हुए भी अपना भिन्न अस्तित्व किसप्रकार टिकाये हुये विद्यमान रहता आया है, उस समस्त स्थिति को समझाने के लिये ही अभी तक का सब विवेचन हुआ है । इन भेद के कथनों द्वारा, सभी अनेकताओं में भिन्न बने रहने का स्वरूप तो समझा । लेकिन अभी उपयोग को एकाग्र करने के लिये अर्थात् प्रायोग्यलब्धि में पदार्पण करने के पूर्व उपयोग का विषय एक ही कैसे बनेगा, यह कला समझना शेष रह जाती है। सभी अनेकताओं तथा भेदों को पीकर जो अभेद - अखण्ड-ज्ञायक भाव बैठा है, वह कैसे है, यह कला अर्थात् इस अपूर्वता को समझे बिना, तथा उस अभेद - अखण्ड स्वरूपी भगवान को लक्ष्य बनाये बिना मेरा उपयोग किसमें एकाग्र होगा। अनेकताओं में उपयोग केन्द्रित होने पर तो, एकाग्रता के स्थान पर अनेकाग्रता हो जावेगी, वह तो विकल्प - रागादि की उत्पादनकर्ता रहेगी, अतः देशनालब्धि के अन्तर्गत ही, भेदों और अनेकताओं के रहते हुए भी अभेद - अखण्ड- एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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