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देशनालब्धि की मर्यादा)
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भावों के इत्यादि के उपदेश से सावधान होकर ऐसा विचार किया कि अहो ! मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं, मैं भ्रम से भूलकर प्राप्त पर्याय ही में तन्मय हुआ, परन्तु इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है, तथा यहाँ सर्वनिमित्त मिले हैं, इसलिये मुझे इन बातों को बराबर समझना चाहिए, क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन भासित होता है । ऐसा विचारकर जो उपदेश सुना उसके निर्धार करने का उधम किया।"
उपरोक्त जिज्ञासा (आतुरता) होने पर वह आत्मार्थी सत्समागम की खोज करता है और जैसे भी बने वैसे, जहाँ भी संभव हो वहाँ पर पहुँचकर ज्ञानी पुरुष को ढूँढता है। ध्यान रहे जिस आत्मा का स्वरूप समझना है, उसके यथार्थ अनुभवी ऐसे ज्ञानी से ही आत्मा का स्वरूप यथार्थ समझा जा सकता है, प्राप्त किया जा सकता है। जिसको स्वयं उस आत्मा का अनुभव नहीं हुआ हो, ऐसा व्यक्ति उसको प्राप्त करने का समझने का मार्ग कैसे बता सकेगा? जैसे कोई व्यक्ति जयपुर से बम्बई कभी गया ही नहीं हो तो, वह जो मार्ग बतावे वह विश्वसनीय कैसे हो सकेगा ? नहीं हो सकेगा। वरन् उसके बताये मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति बम्बई के स्थान पर अन्य कहीं भी पहुंच सकता है। अत: सच्चा मार्ग खोजने वाले को वह मार्ग समझने के लिये, उस मार्ग के मर्मज्ञ ऐसे ज्ञानी पुरुष की खोज करने में बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है। मार्ग प्राप्त करने की आतुरता के आवेश में, बिना परीक्षा करे सत्समागम के स्थान पर असत्समागम प्राप्त हो जाने पर, संभव है कि गलत मार्ग को यथार्थ मार्ग मानकर, मार्ग भ्रष्ट होकर, अपना जीवन ही निरर्थक समाप्त हो जावे । इसकी बहुत भारी जिम्मेदारी आत्मार्थी की है। ऐसा समझते हुए ज्ञानी पुरुष को ढूँढकर, यथार्थ मार्ग प्राप्त करना सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञानी पुरुष का उपदेश ही यथार्थ मार्ग
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