Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 225
________________ २४०) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ होना अनिवार्य है और उनके कारण चिन्ताग्रस्त भी होता है। लेकिन ऐसे सभी प्रसंगों से प्राप्त अनुकूलता अथवा प्रतिकुलता होने पर भी, उन सब संयोगों को पूर्वकृत पुण्य एवं पाप कर्मों के फल जानकर-समझकर अपने मार्ग से विचलित नहीं होता अर्थात् रुचि यथावत् बनाये रखता है। अनुकूलता प्राप्त हो जाने पर उसमें एकमेक नहीं हो जाता अर्थात् अपने आत्मा की उत्कृष्टता को विस्मृत नहीं कर देता । इसीप्रकार प्रतिकूलता प्राप्त हो जाने पर, खेदखिन्न होकर भी आत्मरुचि को हानि नहीं होने देता। ऐसे सभी संयोगों के प्रति मध्यस्थभाव अर्थात् उपेक्षा बुद्धि बनाये रखते हुए, आत्मरुचि की हानि नहीं होने देता। उपरोक्त प्रकार के सभी भाव कृत्रिम अर्थात् हठपूर्वक बनाये रखने की चेष्टा भी नहीं करता । उन सभी प्रसंगों के प्रति द्वेष बुद्धि पूर्वक अथवा किन्हीं भी कारणों से अरुचि उत्पन्न कर त्याग करने की अथवा उपेक्षा बुद्धि के भाव दिखाने की कृत्रिम चेष्टा भी नहीं करता। उपरोक्त स्थिति प्राप्त होने पर आत्मार्थी, रुचिपूर्वक अपने आत्मा के स्वरूप को समझने के लिये अत्यंत आतुर हो जाता है, और यथार्थ स्वरूप के जानने के लिये सत्समागम, जिनवाणी का अध्ययन कर, उस विषय पर घोलन मंथन-विचार करने के प्रयास करता है आदि-आदि। देशनालब्धि का प्रांरभ किसप्रकार? विशुद्धिलब्धि प्राप्त आत्मार्थी को ही देशनालब्धि प्रारंभ होने की पात्रता होती है। इसलिये ऐसी पात्रता वाले आत्मार्थी के कैसे भाव होते हैं, उसका परिचय पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ २५७ पर निम्नप्रकार बताया है :_ “वहाँ अपने प्रयोजनभूत मोक्षमार्ग के, देव-गुरु-धर्मादिक के, जीवादितत्वों के तथा निज-पर के और अपने को अहितकारी-हितकारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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