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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
स्थिरता बढ़ती जाती है, तदनुसर प्रतिमाओं की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। तदनुसार ही मन-वचन-काय की परिणति में भी उत्तरोत्तर वैराग्य, संसार-देह-भोगों के प्रति विरक्ति अंतरंग से उपेक्षावृत्ति बढ़ती जाती है
और तदनुसार ही वचन शुद्धि अर्थात् वीतराग भाव एवं मार्ग में दृढ़ता, निःशंकता बढ़ती जाने से, जो वचन निकलते हैं वे भी अन्तर की भावना के अनुसार ही निकलते हैं तथा विकल्प भी तदनुसार ही होते हैं। इसलिये ज्ञानी की वाणी से ही ज्ञानी आत्मा की पहिचान बहुत सुगमतापूर्वक हो सकती है। क्योंकि वचन अंतरंग भावों के द्योतक होते हैं। इसीप्रकार बाह्य क्रियाओं में भी साथ ही साथ प्रतिमाओं की वृद्धि के अनुसार सहज स्वाभाविक परिवर्तन होता जाता है । जिसका वर्णन चरणानुयोग ग्रंथों में विस्तार से चर्चित है। लेकिन परीक्षक की स्वयं की योग्यता परीक्षा करने योग्य होनी चाहिए। ऐसे आत्मार्थी को ज्ञानी की परीक्षा करना अत्यंत सुगम है।
इसप्रकार उपदेशक के ज्ञानी-अज्ञानी होने की पहिचान भी की जा सकती है।
देशना का केन्द्रबिन्दु क्या हो ? प्रश्न :- देशना का महत्व, उसकी दुर्लभता तथा स्वयं की पात्रता आदि सुनकर उपदेश की महिमा तो समझ में आई। लेकिन लोक में एक मिट्टी की हांडी को भी खरीदते समय उसको ठोक बजाकर पूरी तरह से परीक्षा करके ही खरीदी जाती है, तो फिर जिस उपदेश से अनादि संसार का अभाव होना है, ऐसे अमूल्य मार्ग को ग्रहण करने के लिए तो अति तीक्ष्ण दृष्टि से परीक्षा करके ही उसे ग्रहण करना चाहिए। अत: इस कथन से देशनालब्धि का महत्व तो समझ में आता है। लेकिन देशना के द्वारा जो मार्ग समझना है, उसका केन्द्रबिन्दु क्या होना चाहिए ? यह भी स्पष्ट होना चाहिए।
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