Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

Previous | Next

Page 224
________________ देशनालब्धि की मर्यादा) (२३९ मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ ३१२ में कहा है कि : “इसलिये जो विचार शक्ति सहित हो और जिसके रागादिक मंद हों- वह जीव पुरुषार्थ से उपदेशादिक के निमित्त से तत्त्व निर्णयादि में उपयोग लगाये तो उसका उपयोग वहाँ लगे और तब उसका भला हो। यदि इस अवसर में भी तत्त्व निर्णय करने का पुरुषार्थ न करे, प्रमाद से काल गंवाये- या तो मंदरागादि सहित विषय कषायों के ही कार्यों में ही प्रवर्ते, या व्यवहार धर्मकार्यों में प्रवर्ते, तब अवसर तो चला जायेगा और संसार में ही भ्रमण होगा।" सारांश यह है कि आत्मार्थी को आत्मलाभ करने की यथार्थ रुचि उत्पन्न हुए बिना, कभी किसी भी लब्धि का प्रारंभ ही नहीं होता। क्योंकि ये पाँचों ही लब्धियाँ सम्यक्त्व सन्मुखजीव को ही होती हैं ऐसा जिनवाणी का कथन है । इसलिये आत्मार्थी को सर्वप्रथम यथार्थ रुचि उत्पन्न करना चाहिए। वास्तव में ऐसे भावों को ही जिनवाणी में विशुद्धिलब्धि कहा है। यहाँ तक क्षयोपशमलब्धि के साथ-साथ विशुद्धिलब्धि का स्वरूप समझा। आत्मार्थी देशनालब्धि में आगामी पुरुषार्थ क्या करता है? उसको समझने के लिये अब उसका स्वरूप समझेंगे। देशनालब्धि में पुरुषार्थ क्या होता है? ___“पुरुषार्थ अर्थात् वीर्य का उत्थान।" और वीर्य का उत्थान रुचि के अनुरूप ही होता है अर्थात् रुचि की पूर्ति में ही पुरुषार्थ निरंतर गतिशील बना रहता है । फलत: देशनालब्धि योग्य रुचि संपन्न आत्मार्थी, सांसारिक सभी कार्यों में अर्थात् धंधा-व्यापार आदि की संभाल में एवं कुटुम्ब प्रतिपालना आदि ग्रहकार्यों में व्यस्त रहते दीखते हुए भी, रुचि का वेग तो आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए निरन्तर लालायित बना रहता है एवं उसके पोषण के कार्यों के संयोग जुटाने के लिये प्रयत्नशील भी बना रहता है। सांसारिक कार्यों में, सफलता अथवा असफलता प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246