Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 228
________________ देशनालब्धि की मर्यादा) ( २४३ पुरुष को ही होती है, ऐसी व्याप्ति होने से ज्ञानी को आत्मा के स्वरूप का ज्ञान प्रत्यक्ष वर्तता है; ऐसा जिनवाणी में कहा गया है तथा अनुभव काल में स्वरूप ज्ञात हुआ, वह ही मेरी आत्मा का यथार्थस्वरूप है, अतः मैं ज्ञानी हो गया, इसप्रकार उसका ज्ञान श्रद्धान भी निःशंक हो जाता है । अतः उसका उपदेश ही सत्यार्थ आत्मस्वरूप को बता सकता है । ज्ञानी उपदेशक को पहिचानने के लिये बाह्य लक्षण क्या ? हमारे पास तो इन्द्रिय ज्ञान है और हमको ही ज्ञानी को पहिचानना है । अतः हमको तो ऐसा लक्षण चाहिए जिसमें हम ज्ञानी को पहिचान सकें ? ऐसा प्रश्न आत्मार्थी को उठना स्वाभाविक है, क्योंकि जो ज्ञानी की परिणति में पवित्रता हुई है, उसका अनुभव एवं वेदन तो उस ज्ञानी को हुआ है । वह हमारे ज्ञान का विषय तो हो ही नहीं सकता । अतः ज्ञानी हो जाने पर बाह्य लक्षण ऐसे कौनसे प्रगट हो जाते हैं, जिनके द्वारा ज्ञानी पहिचाना जा सके ? उत्तर :- जिनवाणी में ऐसे बाह्य लक्षण बताये गये हैं। वे हैं, प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य । लेकिन उन लक्षणों को जिनवाणी में व्यवहार लक्षण बताया है। क्योंकि इसप्रकार के लक्षण किसी-किसी अज्ञानी में भी वैराग्यमय प्रसंग उपस्थित होने पर कभी-कभी दिखने लगते हैं। लेकिन वे स्वाभाविक नहीं होने से स्थाई नहीं रहते । अतः इन लक्षणों द्वारा पहिचानने वाले आत्मार्थी का ज्ञान भी, यह पहिचान करने के लिए सक्षम होना चाहिए। प्रश्न :- ऐसे भ्रामक लक्षणों को लक्षण ही क्यों बताया? ये तो निर्दोष लक्षण नहीं कहे जा सकते। उत्तर :- ऐसा नहीं है। ज्ञानी की अपेक्षा तो ये लक्षण निर्दोष ही हैं। फिर भी इन लक्षणों को निश्चय अर्थात् वास्तविक लक्षण नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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