Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 223
________________ २३८ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ अथवा जिनवाणी के अध्ययन द्वारा अथवा ज्ञानी पुरुष के समागम एवं उपदेश द्वारा, संसार- देह-भोगों के प्रति अनादिकाल से जो रुचि लगी हुई है, वह रुचि ही उस ओर से कुछ ढीली कमजोर होकर, सच्चा सुख प्राप्त करने के प्रति आकर्षित होती है । ऐसी रुचि उत्पन्न होना ही वास्तव में विशुद्धिलब्धि है। 1 यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण है कि, मात्र कषाय की मंदता हो जाना ही विशुद्धि लब्धि का स्वरूप नहीं है। वरन् जिस कषाय की मंदता के काल में सच्चा सुख अर्थात् इन्द्रिय सुखों के विपरीत आत्मसुख प्राप्त करने की रुचि अर्थात् प्यास जगी हो वह जिज्ञासा अर्थात् रुचि ही विशुद्धिलब्धि है । क्योंकि जिसको प्यास ही नहीं जगी हो, उसको ठंडा एवं मिष्ठ जल भी मिले तो भी उस पेय को लेने की रुचि ही उत्पन्न नहीं होगी । लेकिन जिसको प्यास जगी हो तो वह पुरुष, जल को प्राप्त करने के प्रयास में संलग्न होगा ही, और मिलने पर उसका भरपेट प्रयोग भी करेगा ही । इससे स्पष्ट रूप से यह सिद्ध हो जाता है कि जिस जीव को सम्यक्त्व प्राप्त करने की भावना उत्पन्न हुई हो, तो ऐसे आत्मार्थी को पुरुषार्थ करना नहीं पड़ता वरन् वह पुरुषार्थ करे बिना रह ही नहीं सकता । जिनवाणी का कथन भी है कि " रुचि अनुयायी वीर्य" । अतः आत्मरुचि जाग्रत हो जाने से आत्मा का वीर्य तो उस ओर लगे बिना रह ही नहीं सकता । जिसप्रकार किसी भी इन्द्रियविषय का लोलुपी प्राणी उस विषय की पूर्ति करने के लिये अपना सम्पूर्ण पुरुषार्थ ही उस ओर झोंक देता है । उस विषय की पूर्ति के लिये सहज रूप से, बिना प्रयास के भी उसको विकल्प उठते रहते हैं, वीर्य का पूरा वेग उस रुचि की पूर्ति के लिये ही प्रयासरत रहता है । इसीप्रकार जिस प्राणी को आत्मरुचि जाग्रत हो जावे तो उसका वीर्य भी उसकी रुचि की पूर्ति करने में निरन्तर संलग्न हो ही जाता है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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