Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

Previous | Next

Page 215
________________ २३०) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ में रहता हुआ, उसमें चैतन्य अनुभवन में लीन होता हुआ मैं इन क्रोधादिक सर्वआश्रवों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ।" उपरोक्त तीनों गाथाओं के माध्यम से हमको सहज ही स्पष्टतया समझ में आ जाना चाहिये कि उपरोक्त सभी भावों का अभाव सिद्ध भगवान की आत्मा में है, तथा अस्ति अपेक्षा से उनमें ज्ञानदर्शन स्वभावपूर्ण विद्यमान है। सारांश यह है कि मेरे आत्मा में जो भाव वर्तमान में मेरे को अस्ति रूप से अनुभव में आ रहे हैं, उन सभी भावों का सिद्ध भगवान की आत्मा में अभाव है। हमको समझने में सरल पड़े इसलिये हमारे अनुभव में आती हुई अशुद्धता के अभाव के द्वारा नास्ति की मुख्यता से, सिद्ध की आत्मा का परिचय कराया गया है। इसीप्रकार जिस ज्ञानदर्शन स्वभाव की परिपूर्णता सिद्ध भगवान में है, उसी ज्ञानदर्शन स्वभाव की मेरी आत्मा में विद्यमानता होते हुए भी अपूर्णता है। मुझे मेरी यह अपूर्णता निरंतर अनुभव में भी आ रही है एवं इसकी पूर्णता प्राप्त करने के लिये निरतंर मेरी अभिलाषा भी बनी रहती है। इन सब कारणों से ज्ञान-दर्शन स्वभाव की मेरे में, अपूर्णता के द्वारा, उस स्वभाव की सिद्ध भगवान में पूर्णता का, हमको सहज रूप से विश्वास हो जाता है। इसप्रकार अस्ति की अपेक्षा भगवान सिद्ध की आत्मा के स्वरूप का भी मुझे सहज ही विश्वास हो जाना चाहिये। उपरोक्त प्रकार से भगवान सिद्ध की आत्मा के स्वरूप को द्रव्यगुण-पर्याय से समझने से, हमारे आत्मा का स्वरूप और उस स्वरूप की विद्यमानता अपने त्रिकाली भाव रूपी आत्मा के ध्रुवस्वभाव में विद्यमानता को अस्ति की मुख्यता से समझने की अत्यन्त सरल प्रक्रिया है, और यही आत्मा का स्वभाव शुद्ध नय का विषय है। जिसका आश्रय करने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246